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न्यायिक आदेशों से आरोपितों के बीच हो सकता है भेदभाव : हाई कोर्ट
प्रयागराज। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अग्रिम जमानत के लिए एक आवेदन को स्वीकार करते हुए कहा है कि असंगत न्यायिक आदेशों से आरोपित व्यक्तियों के बीच भेदभाव हो सकता है। खासकर जब तथ्य और परिस्थितियां समान या एक समान हों।न्यायालय ने कहा कि इस तरह के असंगत आदेश न्यायिक प्रणाली की निष्पक्षता और अखंडता के बारे में जनता की धारणा को कमजोर करते हैं। यही नहीं हाई कोर्ट ने कहा कि न्यायिक कार्यों में भेदभाव करने वाला अधिकारी घोर कदाचार करता है।
न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की एकल पीठ ने अग्रिम जमानत अर्जी मंजूर करते हुए कहा, “न्यायिक व्यवस्था नागरिकों के विश्वास पर टिकी हुई है। नागरिक और वादी उम्मीद करते हैं कि उन्हें न्यायिक आदेश दिए जाएंगे जो कानून और निष्पक्ष प्रक्रिया का पालन करते हैं। असंगत न्यायिक आदेश आरोपित व्यक्तियों के बीच भेदभाव को जन्म दे सकता हैं। खासकर जब तथ्य और परिस्थितियां समान या एक जैसी हों।
हाई कोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका में विश्वास एक लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला है। जब नागरिक अपनी शिकायतें अदालत में लाते हैं, तो उन्हें भरोसा होता है कि न्यायपालिका निष्पक्ष और लगातार न्याय करेगी। यह भरोसा तब खत्म हो जाता है जब न्यायिक आदेश असंगत होते हैं, जिससे पक्षपात या पक्षपात की भावना पैदा होती है। असंगत आदेशों के परिणामस्वरूप समान स्थिति वाले व्यक्तियों के साथ असमान व्यवहार हो सकता है,
हालांकि बीस दिन पहले सह-आरोपित को अग्रिम जमानत के लिए आवेदन मंजूर कर ली गई थी। आवेदक का नाम दर्ज एफआईआर में भी नहीं था और आवेदक अभिषेक यादव के खिलाफ आरोप वही था जो सह-आरोपित के खिलाफ था। जिसका नाम आवेदक की तरह एफआईआर में नहीं था। इसलिए, आवेदक ने भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 323, 336, 308, 504 और 506 के तहत गोपीगंज, भदोही में दर्ज केस में अग्रिम जमानत याचिका दायर की थी।
न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित असंगत जमानत आदेशों के घटनाक्रम पर गौर किया और कहा, “यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि न्यायिक घोषणाएं सुसंगत होनी चाहिए। न्यायिक कार्यवाही में सुसंगतता का मुद्दा सीधे तौर पर निष्पक्षता और निष्पक्ष प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। न्यायिक कार्यवाही की निष्पक्षता वादियों के विश्वास के लिए महत्वपूर्ण है। आपराधिक कार्यवाही व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए राज्य की कार्रवाई को चुनौती देती है। एक बार जब संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की जाती है,
तो यह आवश्यक है कि अदालतें वादियों को असंगत आदेशों के अधीन न करें।“न्यायालय ने कहा कि न्यायिक अधिकारी द्वारा किया गया यह घोर कदाचार है, जो न्यायिक कार्यों में भेदभावपूर्ण व्यवहार के रूप में प्रकट होता है। यह कर्तव्य का गंभीर उल्लंघन है और यह न्यायपालिका से अपेक्षित नैतिक मानकों का उल्लंघन करता है तथा न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को नुकसान पहुंचाता है। न्यायालय ने कहा कि न्यायिक निर्णयों में निरंतरता सुनिश्चित करना कानूनी प्रणाली की विश्वसनीयता को बनाए रखने और इसकी प्रक्रियाओं में जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। तदनुसार, न्यायालय ने आवेदक की अग्रिम जमानत की अर्जी स्वीकार कर ली।