जानिए क्या है KCC?, केसीसी पर दिया 42 फीसदी ऋण एनपीए, फसल का उचित दाम न मिलना विशेषज्ञों ने बताई ये वजह...

बरेली। जिले में किसानों की दयनीय होती हालत की एक तस्वीर एनपीए हुए कृषि ऋणों में भी है। किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) पर पिछले वित्तीय वर्ष में 1684 करोड़ का ऋण दिया गया जिसमें से 719 करोड़ यानी करीब 42 प्रतिशत एनपीए हो गया।

विशेषज्ञों का मानना है कि किसान आर्थिक तौर पर इस समय सबसे असुरक्षित परिस्थितियों से गुजर रहा है। बिचौलियों और दलालों के अलावा सरकारी सिस्टम की मार इस कदर ज्यादातर किसानों पर पड़ रही है कि वे अपने ऋण नहीं चुका पा रहे हैं। इसके बाद उनके लिए सरकारी मदद का यह रास्ता भी बंद होता जा रहा है।

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वित्तीय वर्ष 2023- 24 में जिले में 2571 करोड़ रुपये के कुल एनपीए में से करीब 28 प्रतिशत हिस्सा केसीसी पर दिए गए ऋणों का है। केसीसी पर दिए जाने वाले ऋणों के लगातार एनपीए होने के कारण बैंकों से इससे हाथ खींचने की कहानी इससे स्पष्ट है कि वित्तीय वर्ष 2022-23 में जिले की बैंकों से इस श्रेणी में करीब 2231 करोड़ के ऋण आवंटित किए गए थे जो 2023-24 में करीब 27 प्रतिशत की कमी के साथ घटकर 1684 करोड़ रह गए।

इसके बावजूद इसमें से 719 करोड़ की धनराशि एनपीए हो गई। अर्थशास्त्रियों के मुताबिक कृषि ऋणों के एनपीए होने में यह वृद्धि बड़े जोखिम के रूप में उभर रही है। इसे रोकने के लिए अगर अभी से ठोस उपाय न किए गए तो आगे चलकर इसके भयावह परिणाम भी हो सकते हैं।

आधिकारिक ब्योरे के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2023-24 की पहली तिमाही में केसीसी पर 332 करोड़, दूसरी तिमाही में 15,651 किसानों को 174 करोड़, तीसरी तिमाही में 24,521 किसानों को 248 करोड़ और जनवरी से मार्च की चौथी तिमाही में 1,27,905 किसानों को 930 करोड़ रुपये ऋण आवंटित किए गए।

किसान क्रेडिट कार्ड योजना के तहत बढ़े एनपीए की जानकारी आगामी डीएलआरसी-डीसीसी बैठक में जिला प्रशासन को दी जाएगी। एनपीए में कमी लाने के लिए भी ठोस उपाय किए जाएंगे- वीके अरोरा, एलडीएम

यह है केसीसी...
केसीसी योजना 1998 में शुरू हुई थी जिसके तहत किसानों को नकद पैसा दिया जाता है। बैंक क्रेडिट कार्ड के साथ एक पासबुक जारी करते हैं जिसमें ग्राहक की भूमि जोत, पता, क्रेडिट सीमा और वैधता का विवरण होता है। केसीसी किसानों को बीज, उर्वरक, कीटनाशक, बिजली और डीजल जैसे फसल संबंधी खर्चों को पूरा करने के लिए नकद ऋण की अनुमति देता है। उपकरण खरीदने, भूमि विकास और ड्रिप सिंचाई जैसी गतिविधियों के लिए टर्म क्रेडिट भी दिया जाता है।

जमीन बेचने पर रोक
बैंकिंग नियमों के अनुसार केसीसी के तहत लिया ऋण न चुकाने पर किसान की कृषिभूमि की कुर्की करने का प्रावधान नहीं है। इसके बजाय ऋण न चुकाने की जानकारी तहसील को देकर उसकी जमीन की खसरा-खतौनी पर ऋण चढ़ा दिया जाता है। इसके बाद किसान अपने खेत नहीं बेच सकता। बैंक अधिकारी मानते हैं कि जमीन की कुर्की न होने के कारण भी किसान से केसीसी ऋण को चुकाने में दिलचस्पी नहीं लेते।

कहीं दलालों का खेल, कहीं खुद बैंकों का
केसीसी के तहत लिए गए ऋण चुकाने के लिए किसान कई बार दलालों की मदद लेते हैं। इन दलालों के तार बैंक अफसरों से भी जुड़े रहते हैं। किसान कहीं से बंदोबस्त कर दलाल को पांच प्रतिशत ब्याज के साथ कर्ज की एकमुश्त राशि बैंक को चुकाने के लिए देते हैं और इसके तुरंत बाद बैंक से फिर केसीसी ऋण ले लेते हैं।

इस वजह से बैंकों का एनपीए जहां के तहां रह जाता है। कुछ बैंकों में केसीसी ऋण को सेटल करने के लिए उसे टर्म लोन में परिवर्तित कर रिकॉर्ड में केसीसी की रिकवरी दर्शा दी जाती है। इसका परिणाम होता है कि एनपीए बरकरार रहता है जो बाद में बैंकों पर बोझ बन जाता है।

जरूरतें भारी पड़ जाती हैं तंगहाल किसान पर
बरेली कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग की डॉ. शिखा वर्मा कहती हैं कि मौसमी परिस्थितियों के साथ किसानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनी जरूरतें पूरी करना है। इस तरह के उदाहरण आम हैं कि सरकारी योजनाओं के तहत लिए गए कृषि ऋण वे अपनी व्यक्तिगत जरूरतों पर खर्च कर देते हैं और फिर उसे चुका नहीं पाते।

कृषि ऋणों के सही क्रियान्वयन के लिए निगरानी आवश्यक है। एक विकल्प यह भी हो सकता है कि किसान को नकद धनराशि के बजाय बीज-खाद की दुकानों पर भुगतान किया जाए। क्रॉप लोन का फीडबैक लेने, किसानों की फसल का ऑडिट या सर्वे जैसे उपाय भी किए जा सकते हैं।

व्यापारी, बिचौलिये और दलाल उठाते हैं किसानों की मेहनत का फायदा
भोजीपुरा के किसान मनोज कुमार कहते हैं कि ज्यादातर किसान अपनी ही मजबूरियों में कैद हैं। वे अपनी फसल तैयार होते ही अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उसे बेचना चाहते हैं, इसका फायदा व्यापारी, बिचौलियों और दलालों के साथ सरकारी सिस्टम में बैठे लोग भी उठाते हैं।

कभी किसान को थोड़ा-बहुत मुनाफा मिलता है तो कई बार लागत तक नहीं मिल पाती। उसके लिए यह इंतजार करना मुश्किल होता कि बाजार में दाम बढ़ने तक फसल को रोक लिया जाए। आधुनिक खेती उसकी हालत में कुछ बदलाव कर सकती है लेकिन इसमें भी कमजोर आर्थिक स्थिति आड़े आ जाती है।

Edited By: Ballia Tak

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