सोनपुर का विश्व विख्यात् ‘पशु मेला’

‘मोक्षदायिनी’ गंगा और ‘नारायणी’ के नाम से विख्यात् कल्याणकारिणी गंडक नदी के संगम पर स्थित ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पौराणिक महत्त्व वाले बिहार के सोनपुर क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष लगने वाला विश्व विख्यात् ‘पशु मेला’ भारत की गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा का प्रतीक है। इस मेले का एक नाम ‘छत्तर मेला’ भी है। गौरतलब है कि कुछ दशक पूर्व तक यहां पर सुई से लेकर हाथी तक क्रय-विक्रय के लिए उपलब्ध होते थे। हालांकि, इस मेले का स्वरूप अब काफी बदल चुका है, लेकिन इसका आकर्षण लोगों में आज भी व्याप्त है। यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष न केवल भारत के विभिन्न राज्यों, बल्कि दुनिया भर के देशों से लाखों पर्यटक इस मेले को देखने और खरीदारी करने आते हैं। इस मेले का विशेष धार्मिक-आध्यात्मिक महत्त्व होने के साथ-साथ विराट सांस्कृतिक एवं कलात्मक महत्त्व भी है। वैसे, मेले के प्रमुख आकर्षणों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों, साहित्यिक गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों, थिएटरों, पेंटिंग एवं क्विज प्रतियोगिताओं तथा पुस्तक मेले का आयोजन शामिल है। आजकल, रिकॉर्डेड पश्चिमी गानों की धुनों पर थिएटरों में 50 से भी अधिक नर्तक-नर्तकियों की प्रस्तुतियां लोगों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र होते हैं। तात्पर्य यह कि आस्था, लोक-संस्कृति एवं आधुनिकता के रंग में सराबोर इस मेले में बदलते बिहार की झलक साफ दिखाई देती है। प्रत्येक वर्ष कार्तिक महीने में आरंभ होकर प्रायः एक महीने तक चलने वाले इस प्रसिद्ध मेले का शुभारंभ पिछले 13 नवंबर को बड़े ही धूमधाम से हो चुका है। इस बार 32 दिनों तक चलने वाले इस मेले का समापन आगामी 14 दिसंबर को होगा।
 
उत्तर वैदिक काल से लग रहा है मेला
सोनपुर मेले की प्रथम शुरुआत का तो कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, परंतु इतना निश्चित है कि यहां पर उत्तर वैदिक काल से ही यह विश्व प्रसिद्ध मेला लग रहा है। वैसे, महापंडित डॉ. राहुल सांकृत्यायन ने सोनपुर के पशु मेले का शुंगकाल से ऐतिहासिक संबंधित बताया है। सोनपुर क्षेत्र के अनेक पुराने मठ-मंदिरों में शुंगकालीन पत्थरों एवं अन्य अवशेषों की मौजूदगी डॉ. राहुल सांकृत्यायन के इस अभिमत पर मुहर लगाती है। हालांकि, इसके बावजूद इस बात की पुष्टि नहीं होती कि सोनपुर क्षेत्र में इस पशु मेले की शुरूआत कब हुई।
 
मेले का ऐतिहासिक महत्व
पुराने समय में इस मेले में मध्य एशियाई देशों से हाथियों और घोड़ों के कारोबारी आते थे, क्योंकि यह प्रशिक्षित हाथियों और घोड़ों का संपूर्ण एशिया का सबसे बड़ा केंद्र था। धर्मग्रंथों में उल्लेख है कि सिख धर्म के गुरु नानक देव जी भी एक बार यहां आए थे। वहीं, बौद्ध साहित्य के अनुसार बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध भी अपनी कुशीनगर यात्रा के दौरान यहां पधारे थे। इसी प्रकार, मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य एवं 1857 के बहुचर्चित एवं बहुपठित गदर के नायक वीर कुंवर सिंह ने सोनपुर मेले से हाथियों की खरीदारी की थी। इतिहास की पुस्तकों में इसके भी प्रमाण हैं कि मुगल शासक अकबर के प्रधान सेनापति महाराजा मान सिंह ने सोनपुर मेले से मुगल सेना के लिए हाथी एवं अस्त्र-शस्त्र की खरीदारी की थी। सन् 1803 में रॉबर्ट क्लाइव ने यहां पर घोड़े का बड़ा अस्तबल बनवाया था। वैसे, ‘पशु संरक्षण कानून’ लागू रहने के कारण अब इस मेले में हाथी की बिक्री नहीं की जाती, लेकिन गाय, घोड़े, कुत्ते और बिल्लियां अभी भी खरीद-बिक्री के लिए लाए जाते हैं।
 
भगवान श्रीहरि विष्णु ने भक्त ग्राह की रक्षा की
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान के दो भक्त हाथी यानी ‘गज’ और मगरमच्छ यानी ‘ग्राह’ के रूप में धरती पर उत्पन्न हुए थे। मान्यता है कि एक बार कार्तिक पूर्णिमा के दिन सोनपुर स्थित कोनहारा घाट पर जब गज पानी पीने के लिए आया तो उसे ग्राह ने अपने मुंह में जकड़ लिया। तत्पश्चात् दोनों में युद्ध प्रारंभ हो गया, जो कई दिनों तक चला। मगरमच्छ से हाथी जब हारने लगा, तो आर्Ÿा होकर उसने भगवान श्रीहरि विष्णु से प्रार्थना की। उसके बाद भगवान ने तत्काल सुदर्शन चक्र से मगरमच्छ का वध कर हाथी की रक्षा की थी। इसीलिए यह मेला स्थल ‘गजेंद्र मोक्ष स्थल’ के नाम से भी जाना जाता है। यहां पशुओं की खरीदारी करना बेहद शुभ माना जाता है।
 
भगवान श्रीराम ने किया मंदिर निर्माण
सोनपुर मेला स्थल पर ‘हरि’ यानी भगवान श्रीहरि विष्णु और ‘हर’ यानी भगवान शिव का एक संयुक्त मंदिर स्थित है, जो ‘हरिहर नाथ मंदिर’ के नाम से विख्यात् है। एक पौराणिक मान्यता के अनुसार इस मंदिर का निर्माण स्वयं भगवान श्रीराम ने तब किया था, जब वे अपने गुरु महामुनि विश्वामित्र एवं अनुज लक्ष्मण जी के साथ ‘सीता स्वयंवर’ में भाग लेने जनकपुर जा रहे थे। यह हरिहर नाथ मंदिर संभवतः भारत का एकमात्र ऐसा अनोखा मंदिर है, जहां पर एक साथ भगवान श्रीहरि विष्णु और भगवान शिव विराजमान हैं।
 
‘हरि’ और ‘हर’ की अनूठी प्रतिमा
इस हरिहर नाथ मंदिर में शायद देश की अकेली ऐसी अनूठी प्रतिमा है, जिसके आधे भाग में शिवलिंग स्थित है और शेष आधे भाग में भगवान श्रीहरि विष्णु की आकृति विद्यमान है। बता दें कि यहां प्रतिदिन सैकड़ों श्रद्धालु पूजन-अर्चन, ध्यान, आराधन आदि करने आते हैं। एक पौराणिक मान्यता के अनुसार आज से लगभग 14000 वर्ष पूर्व सोनपुर के कोनहारा घाट पर जब भगवान श्रीविष्णु ने हाथी को बचाया था, तब भगवान की इस लीला को देखने हेतु सारे देवी-देवता प्रकट हुए थे। उसी समय भगवान ब्रह्मा ने शैव और वैष्णव संप्रदायों के लोगों के बीच सामंजस्य बढ़ाने के उद्देश्य से यहां पर ‘हरि’ और ‘हर’ की उपर्युक्त अनोखी प्रतिमा स्थापित की थी। इसीलिए इस स्थान को ‘हरिहर क्षेत्र’ भी कहा जाता है।
 
माहात्म्य का उल्लेख पुराणों में
सोनपुर के इस हरिहर क्षेत्र में पवित्र गंगा-गंडक के तट पर स्नान करने तथा हरिहर नाथ मंदिर में पूजन-अर्चन, आराधन आदि करने के माहात्म्य का उल्लेख श्रीमद्भागवत महापुराण समेत अन्य कई पुराणों में भी मौजूद है। यहां न केवल भारत, बल्कि दुनिया भर से आए शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सभी संप्रदायों के श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु एक साथ कार्तिक पूर्णिमा का महत्वपूर्ण स्नान कर हरिहर नाथ मंदिर में स्थित अनूठे शिवलिंग पर जलाभिषेक करते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार इस शिवलिंग पर जलाभिषेक और तदुपरांत भगवान की स्तुति करने से एक साथ देवाधिदेव महादेव और भगवान श्रीहरि विष्णु दोनों की कृपा प्राप्त होती है।
Edited By: Ballia Tak

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