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टकराव उचित नहीं
संवैधानिक व्यवस्था में राज्यपाल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आज जब हम सहकारी संघवाद और देश की प्रगति के हित में स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद पर जोर दे रहे हैं तो राज्यपाल की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। एक ओर वह केंद्र सरकार के अभिकर्ता के रूप में कार्य करता है, दूसरी ओर राज्य का संवैधानिक प्रमुख भी है। हालांकि देश में राजभवन और राज्य सरकार के बीच टकराव का इतिहास भी रहा है। यह स्थिति तभी बनती है जब केंद्र व राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक दल की सरकार होती है। ऐसे में कई राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में काम करते नजर आते हैं।
दरअसल लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा को लेकर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सुवेंदु अधिकारी और भाजपा नेता हिंसा पीड़ितों के साथ 13 जून को राजभवन जा रहे थे, तो पुलिस ने उन्हें रोका था। सुवेंदु को पुलिस ने धरने की इजाजत भी नहीं दी थी। इसके बाद राज्यपाल ने सोमवार को कोलकाता पुलिस को राजभवन खाली करने को कहा था और राजभवन के उत्तरी गेट के पास पुलिस चौकी को जनमंच बनाने की योजना बनाई। हालांकि पुलिस अभी भी गवर्नर हाउस में ड्यूटी पर है।
इसी तरह गत वर्ष पश्चिम बंगाल के शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु ने राज्यपाल सीवी आनंद बोस द्वारा की गई 10 विश्वविद्यालयों में अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति को खारिज कर दिया था, ये विश्वविद्यालय राज्य सरकार द्वारा संचालित हैं, जिसे लेकर काफी विवाद पैदा हुआ था। गौरतलब है कि राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होने के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकार के बीच महत्वपूर्ण कड़ी होता है। सवाल उठता है कि क्या संवैधानिक पद की गरिमा को बनाए रखने का दायित्व उस पर बैठे व्यक्ति का है।
इस संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि संवैधानिक पदों की गरिमा को बरकरार रखना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। महत्वपूर्ण है कि जहां एक ओर राज्यपाल राज्य के नाम मात्र प्रमुख के रूप में कार्य करता है वहीं वास्तविक शक्ति लोगों द्वारा चुने गए राज्य के मुख्यमंत्री के पास होती है। इसलिए राज्यपाल और राज्य सरकार का टकराव किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। यही टकराव लोकतांत्रिक प्रक्रिया को हानि पहुंचाता है।