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चुनावी परिदृश्य में बदलाव
एक राष्ट्र-एक चुनाव (ओएनओई) नई धारणा नहीं है। आजाद भारत के पहले चार आम चुनाव ऐसे ही हुए थे। एक राष्ट्र, एक चुनाव प्रक्रिया में बदलाव 1960 से तब शुरू हुआ जब गैर कांग्रेस पार्टियों ने राज्य स्तर पर सरकारें बनाना शुरू किया। इसमें यूपी, बंगाल, पंजाब, हरियाणा शामिल थे। 1969 में कांग्रेस का बंटवारा और 1971 युद्ध के बाद मध्यावधि चुनाव हुए और इसके बाद विधानसभा चुनावों की तारीखें कभी आम चुनाव से नहीं मिलीं और अलग-अलग चुनाव शुरू हो गया। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से एक देश एक चुनाव के समर्थक रहे हैं। प्रधानमंत्री ने 2019 के स्वतंत्रता दिवस पर एक देश एक चुनाव का मुद्दा उठाया था। मंगलवार को एक देश, एक चुनाव विधेयक को लोकसभा में पेश कर किया गया।
वैश्विक मिसालों से सीखकर और चरणबद्ध दृष्टिकोण अपनाकर, भारत इन चुनौतियों का समाधान कर सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि सुधारों से अधिक सामंजस्यपूर्ण और कार्यात्मक चुनावी प्रणाली बनेगी। इस प्रक्रिया के समर्थकों का तर्क है कि इस तरह की प्रणाली प्रशासनिक दक्षता को बढ़ा सकती है, चुनाव संबंधी खर्चों को कम कर सकती है और नीति संबंधी निरंतरता को बढ़ावा दे सकती है।
भारत में शासन को सुव्यवस्थित करने और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को उसके अनुकूल बनाने की आकांक्षाओं को देखते हुए “एक देश, एक चुनाव” की अवधारणा एक महत्वपूर्ण सुधार के रूप में उभरी है। वास्तव में यह पूरे भारत में चुनावी प्रक्रियाओं को समन्वित करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है, जिसका लक्ष्य अधिक दक्षता, कम लागत और सुव्यवस्थित शासन लाना है।
जैसा कि विधि मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि इस फैसले से लोकतंत्र में मजबूती आएगी एवं सरकार की योजनाओं और नीतियों में निरंतरता बनी रहेगी। गौरतलब है पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति को प्राप्त हुईं 80 प्रतिशत प्रतिक्रियाएं एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में थीं। समिति के समक्ष 47 राजनीतिक दलों ने विचार प्रस्तुत किए। इनमें से 32 दलों ने संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग और सामाजिक सद्भाव जैसे लाभों का हवाला देते हुए एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया। इससे उम्मीद बनी कि व्यापक सार्वजनिक और राजनीतिक समर्थन के साथ, एक साथ चुनाव की अवधारणा भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और शासन की दक्षता को बढ़ाने के लिए तैयार है।